Sunday, August 10, 2008

ग़ज़ल





ग़ज़ल
डा. अहमद अली बर्क़ी आज़मी
सफर नया ज़िंदगी का तुमको न रास आए तो लौट आना
फेराक़ मे मेरे नीँद तुमको अगर न आए तो लौट आना
नहीँ है अब कैफ कोई बाक़ी तुम्हारे जाने से ज़िंदगी मेँ
तुम्हेँ भी रह रह के याद मेरी अगर सताए तो लौट आना
तेरे लिए मेरा दर हमेशा इसी तरह से खुला रहेगा
अगर कभी वापसी का दिल मेँ ख़याल आए तो लौट आना
बग़ैर तेरे बुझा बुझा है बहार का ख़ुशगवार मंज़र
तुझे भी यह ख़ुशगवार मंज़र अगर न भाए तो लौट आना
तुम्हारी सरगोशियाँ अभी तक वह मेरे कानोँ मेँ गूँजती हैँ
हसीन लमहा वह ज़िंदगी का जो याद आए तो लौट आना
ग़ज़ल सुनाऊँ मैँ किसको हमदम कि मेरी जाने ग़ज़ल तुम्ही हो
दोबारा वह नग़मए मोहब्बत जो याद आए तो लौट आना
ख़याल इसका नहीँ कि दुनिया हमारे बारे मेँ क्या कहेगी
जो कोई तुमसे न अपना अहदे वफ़ा निभाए तो लौट आना
है दिन मेँ बे कैफ क़लबे मुज़तर बहुत ही सब्र आज़मा हैँ रातेँ
तुम्हेँ भी ऐसे मे याद मेरी अगर सताए तो लौट आना
तुझे भी एहसास होगा कैसे शबे जुदाई गुज़र रही है
सँभालने से भी दिल जो तेरा संभल न पाए तो लौट आना
कभी न तू रह सकेगा मेरे बग़ैर बर्क़ी मुझे यक़ीँ है
ख़याल मेरा जो तेरे दिल से कभी न जाए तो लौट आना

1 comment:

Vinay said...

bahut khoobsoorat alfaaz-o-ehsaasaat mein doobii hui ghazal hai! badhai!